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Chandrakiran

अबला तुम प्रबला बनो ( कविता )

नमस्कार पाठको,
आज हम विकास एवं नारी - पुरुष समानता की बात करते थकते नही । किन्तु पुरुष जहाँ स्वतंत्र हो अरण्य में भी विचरण कर सकता है वहीं नारी भीड़ में भी अपनें को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही है । स्वजनों के बीच भी उसकी अस्मिता खंडित हो रही है । क्या जिम्मेदार है सिर्फ पुरुष वर्ग, या नारी को स्वयं अपनी शक्ति को जगाना होगा । आज शक्ति की आराधना करते हुए उसे स्वयं शक्ति स्वरूपा बनना होगा तभी वह अपनी पहचान रख पायेगी ।

            अबला तुम प्रबला बनो

नारी कब तक हारेगी अपनी निर्बलता में
कब तक घुटेगी अपनी प्रबल विवशता में
उसकी यह निर्बलता यह विवशता
बनी है सदा उसके लिए अभिशाप
क्षमा, दया, सहनशीलता की उपाधि कितनी महंगी पड़ गई इस अबला को
वह चढ़ा दी गई दहेज़ की बली वेदी पर
इज्जत का सौदा करने को बेच दी गई बाजारों में
इसके बाद भी वह चुपचाप अश्क पीती रही
कभी फरियाद किया भी तो उन्ही से जिन्होंने इन्हें इस मुकाम तक पहुँचाया था ।
क्या इसकी विवशता चीर स्थाई है ? नहीं !
नारी ! तुम अबला नहीं प्रबला बनों ।
लौटा दो उनकी उपाधियाँ उन्हें
जिन्होने तुम्हारे शोषण के लिए जाल फैला कर
तुम्हें क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति कहा
बता दो इन दहेज़ - दानवों को
अब चुपचाप नहीं जलेंगी, सुकुमार कलियाँ
नहीं सहेगी मौन होकर अब अत्याचार
अनुमान करो उसकी शक्ति का
जो स्वयं शक्ति स्वरूपा है ।
                         - डॉ. सविता श्रीवास्तव
                      एम.ए., पीएच.डी., एल.एल.बी.
    

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